बद्रीनाथ और शारदा पीठ द्वारका के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती रविवार को ब्रह्मलीन हो गए। शंकराचार्यजी के दिव्य ज्योति में विलीन होने का समाचार उज्जैन पहुंचते ही, धर्मक्षेत्र के लोग शोकाकुल हो गए।
पं.आनंदशंकर व्यास ने बताया स्वामी स्वरूपानंदजी का उज्जैन से गहरा नाता रहा है। सन् 1956 के महाकुंभ में वे पहली बार दंडी स्वामी के रूप में उज्जैन आए थे। 2016 के सिंहस्थ में भी उज्जैन आए। चार दशक पहले शंकराचार्यजी ने पं.आनंदशंकर व्यास को 251 रुपये भेंट में दिए थे, जिसे उन्होंने आज भी संभालकर रखा हुआ है।
बकौल पं.व्यास दिव्य महापुरुषों द्वारा दी गई भेंट स्थाई समृद्धि कारक होती है, इसलिए उन्होंने आज तक शंकराचार्यजी से भेंट में मिली राशि को अपने बैग में सुरक्षित रखा है। शंकराचार्य स्वरूपानंदजी से पं.व्यास की भेंट अनेक बार हुई, उन्होंने बताया सन् 1956-57 में सिंहस्थ के आयोजन को लेकर विद्वानों में मतांतर था।
उस समय उनके पिता संकर्षणजी व्यास ने शास्त्री मान्यता अनुसार 1956 में सिंहस्थ महाकुंभ आयोजित करने के मुहूर्त प्रदान किए। प्रमुख संतों ने इसे स्वीकार किया और स्वामी करपात्रीजी महाराज सिंहस्थ करने उज्जैन आए, उनके साथ दंडी स्वामी के रूप में स्वामी स्वरूपानंदजी भी उज्जैन आए थे और रूद्रसागर में ठहरे थे।
इसके बाद सन् 1968 में स्वामीजी के उज्जैन आने का अवसर बना, उस समय वे पं.व्यासजी के निवास पर भी आए थे। दूसरी बार सन् 1980 में स्वामजी फिर उज्जैन पधारे तथा पं.व्यास के निवास पर ही विद्वतजनों से मुलाकात की। जब लौटने लगे तो उन्होंने 251 रुपये की भेंट राशि ब्राह्मण को दक्षिणा के स्वरूप भेंट की। पं.व्यास बताते हैं 1980 के बाद कुछ एक अवसरों पर दूरभाष के माध्यम से उनसे चर्चा हुई।
इंदौर में आश्रम के शुभारंभ पर आमंत्रित किया था
शंकराचार्यजी को तत्कालीन सरकार ने इंदौर में आश्रम के लिए जमीन उपलब्ध कराई थी। निर्माण के बाद आश्रम भवन का उद्घाटन करने स्वामीजी स्वयं इंदौर आए, इस कार्यक्रम में उन्होंने पं.व्यास को भी आमंत्रित किया था। धर्मसभा में उन्होंने कहा कि पं.आनंदशंकर व्यास हमारे ज्योतिषि हैं, इनके कहने पर ही सिंहस्थ महाकुभ का आयोजन होता है। पं.व्यास ने बताया उनके श्रीमुख से इन सम्मान भरे शब्दों को मैं आज भी नहीं भूल पाया हूं।
परमहंस डा.अवधेशपुरी ने अर्पित किए श्रद्धा सुमन
क्रांतिकारी संत परमहंस डा.अवधेशपुरीजी महाराज ने द्वारकापीठाधीश्वर स्वामी स्वरूपानंदजी के ब्रह्मलीन होने को सनातन धर्म, संस्कृति की अपूर्णीय क्षति बताया है। उन्होंने कहा कि शंकराचार्यजी धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के लिए सदैव निर्भीकता, सैद्धान्तिकता, निष्पक्षता तथा स्पष्टवादिता के साथ अपना मत प्रदान करते थे।


